आँखों में जो सपने न सजाए होते
सरेराह अपने, यूँ न पराये होते
मालूम होता अगर मुश्किल है सफ़र
तो हमने भी कुछ हमराह बनाए होते
गैरों पर भी कुछ इल्जाम लगा देता मगर
अपनों नें जो ज़ख्म न लगाए होते
जिनके नाम पर उठ रहीं हैं महफिल में उँगलियाँ मुझपर
काश आज वो भी मेरी बज़्म में आये होते
जिनकी निगाहों से छलकती थी शबनम-ए-वफ़ा
बाकरम वो बदले-बदले से नज़र न आये होते
अब समझा हूँ कि कागज के फूल से जो आती खुशबू
गुलशन इस कदर दुनियां में न लगाए जाते
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(सुशील कुमार)
15, दिसम्बर 2011
दिल्ली
सरेराह अपने, यूँ न पराये होते
मालूम होता अगर मुश्किल है सफ़र
तो हमने भी कुछ हमराह बनाए होते
गैरों पर भी कुछ इल्जाम लगा देता मगर
अपनों नें जो ज़ख्म न लगाए होते
जिनके नाम पर उठ रहीं हैं महफिल में उँगलियाँ मुझपर
काश आज वो भी मेरी बज़्म में आये होते
जिनकी निगाहों से छलकती थी शबनम-ए-वफ़ा
बाकरम वो बदले-बदले से नज़र न आये होते
अब समझा हूँ कि कागज के फूल से जो आती खुशबू
गुलशन इस कदर दुनियां में न लगाए जाते
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(सुशील कुमार)
15, दिसम्बर 2011
दिल्ली
उत्तम सुशिल जी
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