शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

कविता का जन्म


एक अजीब सी बेचैनी है 
जो मुझे समझ में आती तो है 
लेकिन 
अगर बात किसी को समझाने की हो 
तो अवर्णनीय हो जाती है
और
जिसकी वजह से कलम उठा कर 
खुद को टीपू सुल्तान  समझता हूँ  
और हमलावर तेवर से निकालता हूँ 
अपनी कॉपी 
रंग डालने के लिए 

पहनाने लगता हूँ नग्न बेचैनी को 
शब्दों का जामा 
गढ़ता हुआ वाक्य-दर-वाक्य 
कोसता हूँ निर्लज बेचैनी को 
जो नग्न हो जाती है पुन:
अगली पंक्ति तक जाते-जाते  

एक-एक वाक्य गढ़ने की जद्दोजहत में 
यह भूल जाता हूँ कि 
कविता हँस रही है मुझ पर 
यह सोचकर कि 
टूट ही जाएगी रीढ़ की हड्डी
इस बेचैन कवि की  
मुझ को गढ़ने में

और मैं मुस्कराता हूँ 
यह देख कर  
कि मेरी बेचैनी
रात के ढलते-ढलते  
कितनी अच्छी लग रही है  
पारंपरिक पोशाक में

पौ फटते ही जन्मी है कविता 
सारी बेचैनियों के खिलाफ ! 

**सुशील कुमार**

3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ... क्या बात है ... बेहद खूबसूरत कविता ने जन्म लिया है ... उम्दा prastuti ...

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  2. aapka kavita ke sath sanghars kafi ramanchak laga..... blog ka pics bahoot hi khoobsurat hai. man moh lene vala.

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  3. बहुत ही अच्छी बनकर आई है यह कविता.बहुत बहुत धन्यवाद इस कविता को हम तक पहुँचाने के लिए.

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