बुधवार, 18 अप्रैल 2012

एक मौत ही साम्यवादी है

वह माटी की सौंधी गंध का मुरीद था
सुनता था कहीं कोई चटकन सुनायी तो नहीं देती
कलियों के फूल बनने की प्रक्रिया में
इन्द्रधनुष की खबर
गाँव भर में देता फिरता सबसे पहले
पैरों के तलवे को छूने वाली
एक-एक ओस की बूंद को वह पहचानता था
बसंत में वह ऐसे झूमता जैसे 
गुलमोहर और पलास उसी के लिये रंग बिखेरने आये हों

अगर अपनी धुन में जीता
तो वह कवि होता
लेकिन फांकाकशी में
चाँद भी रोटी दिखता है

कब तक सौन्दर्यबोध में जीता
और दवाईयों के लिए
लोगों के सामने हाथ फैलाता

भूख की लड़ाई में
एक के बाद एक
सबने अलविदा कहा  
पिता, बड़ा भाई, माँ और चाचा
और वह जान पाया कि
हर काली रात एक
सुर्ख सुबह पर जा कर ख़त्म होती है
जहाँ सब के हिस्से में एक बराबर आती है मौत
इस क्रूर व्यवस्था में
एक मौत ही साम्यवादी है

उसने जो पहली कविता लिखी
वह कविता नहीं, सुलगते कुछ सवाल थे
या कहें चंद सवालात की पूरी कविता

कि आखिर वह कौन है जो
समाजवादी तरीकों से मौत तय करता है
और जिंदगी बाँटते समय पूंजीवादी हो जाता है ?

वह कौन सा फार्मूला है कि
जिन मुश्किल दिनों में बामुश्किल
मेरे घर में कफ़न खरीद कर लाये जाते हैं
उसी दौर में पडोसी के घर
चर्बी घटाने की मशीनें आती है ?


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सुशील कुमार
18, अप्रैल 2012
दिल्ली  

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इस कविता को नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "मुक्ति संघर्ष" (साप्ताहिक) ने 2 से 8 जून 2013 वाले अंक में प्रकाशित किया था |  

2 टिप्‍पणियां:

  1. वह कौन सा फार्मूला है कि
    जिन मुश्किल दिनों में
    मेरे घर में कफ़न खरीद कर लाये जाते हैं
    उसी दौर में पडोसी के घर
    वजन कम करने की मशीनें आती है ?.... kitni bhavpoorn rachna hai ... bahut kuch sochne par majboor karti hai ... umda

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  2. 'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
    मैं उन्हें समझाता हूँ –
    यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
    कि जिस उम्र में
    मेरी माँ का चेहरा
    झुर्रियों की झोली बन गया है
    उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
    के चेहरे पर
    मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
    लोच है।

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