शनिवार, 14 अप्रैल 2012

मुखौटा

रोज की तरह 
शाम को घर लौटा

उतार दिया एक-एक कर
कमीज, पतलून, चश्मा और जूते
बेटे को गोद में उठाया ही था कि
वह जोर-जोर से रोने लगा

ऐसा लगा किसी अजनबी नें
लपक लिया हो उसको

मैनें भाग कर आईने में
अपना चेहरा देखा
ओह, कई चेहरे चिपके हैं परत-दर-परत

एक-एक कर
उतारता गया चेहरों को

ये कन्सलटेंट गया
ये समाजसेवी
ये एक्टिविस्ट
ये प्रशिक्षक
ये मूल्यांकनकर्ता
ये कवि भी गया

अब अपनी जेब से
निकाल कर पापा का चेहरा
चिपकाया खाली-खाली से मुखड़े पर

बेटे को गोद में उठाया
और
घोडा-घोडा खेलता रहा बहुत देर तक
उसके साथ
 
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सुशील कुमार
दिल्ली, 14 , अप्रैल 2012
 श्रोत : http ://sambhawnaonkashahar.blogspot.in

1 टिप्पणी:

  1. बेहतर....धूमिल की कविता "घर में वापसी" की याद दिला दी आप ने
    कोशिश जारी रखे
    धन्यवाद

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