सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

डिग्री

पसीने से लथपथ चेहरे पर
सफ़ेद लेकिन मैले हो चुके
रुमाल को फेरते हुए
निगाह उस दफ्तर पर
ऐसे टिक गई जैसे
मरुस्थल में जलाशय दिख गया हो

दम तोडती उम्मीद को
हौसले का कन्धा देकर
'वह'
निष्प्राण क़दमों को
आत्मविश्वास की संजीवनी पिलाता है

परन्तु
जब रेत-कणों की चमक
जल नजर आती है
निराशा लाती है

बाहर आकर
गुस्सा जेब पर भी आया
तेरी वजह से
मैं गैर-सरकारी नौकर
भी न बन पाया

पसीने से भींगी सफ़ेद कमीज पर
ढीली टाई
जेब से झांकती कलम
और पुरानी फाईल

सुबह से शाम तक
यथावत दिनचर्या के बाद
फिर उसी बस स्टॉप पर खड़े होकर
जेब में रखे चिल्लड़ को गिनते हुए
उदास हो गया
'वह'

हालाँकि
अभी भी मुस्करा रही थी
फाईल में उसकी
'पी. एच. डी.' की डिग्री !

** सुशील कुमार **



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इस कविता को सबसे पहले नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "मुक्ति संघर्ष" (साप्ताहिक) ने 27 दिसंबर 1998 से 2 जनवरी 1999 वाले अंक में प्रकाशित किया था |  

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