गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

मेरा पता

इस शहर में
साल दर साल
डायरी की तरह
बदल जाते हैं पते

हर नया पता
जैसे पुराने पते को
अंगूठा दिखा रहा होता है

सैकडो चिट्ठीयां
भटक रही हैं पुराने पतों पर
मेरे नाम की

कल की कब्र पर
आज के बाजार वाले
फार्मूले से  डर लगता है 

कहीं डायरी से
कैलेंडर न हो जाऊं !

** सुशील कुमार **

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