उम्मीद से लिपटी हुई सुबहों
और हताश शामों के बीच
रोज कुछ ऐसा घटित हो रहा है
जो जीवन के और करीब ला रहा है
खत्म होती संवेदनाओं की धरती से
बस एक कंकड़ चुरा कर रख रहा हूँ रोज
ताकि इस जमीन के अवशेष से
फिर रच सकूँ एक नई धरती
ताकि इसी बहाने मैं बचा रहूँ
विध्वंस के इस खेल में
ताकि अपनी नश्वरता को बहका सकूँ
फिर एक बार
रोज कुछ ऐसा घटित हो रहा है
जो जीवन के और करीब ला रहा है
खत्म होती संवेदनाओं की धरती से
बस एक कंकड़ चुरा कर रख रहा हूँ रोज
ताकि इस जमीन के अवशेष से
फिर रच सकूँ एक नई धरती
ताकि इसी बहाने मैं बचा रहूँ
विध्वंस के इस खेल में
ताकि अपनी नश्वरता को बहका सकूँ
फिर एक बार
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सुशील कुमार
दिल्ली, 03 मई 2014
(तस्वीर : गूगल से साभार)
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