तुमने बहुत लिखा
उनपर, उनके हालात पर
तुम्हारी कलम जब तक बोलती रही
वे चुप रहे, चुप ही रहे
कागज पर फैली कालिख नें
तुम्हें प्रकाशकों का चहेता बनाया
शब्द जो दफ्न हुए तुम्हारे काव्य संग्रहों में
फिर उठ न पाए
तुम क्यूँ न रोक देते हो लिखना
और अँधेरी गलियों में सुनते हो उनको
जो बोल नहीं पाते
तुम्हारी कविताओं में
जान तो लो
कलम की भी सीमाएँ हैं
जिनके पार ही
दर्द खोदा जाता है
उतरना ही पड़ता है ज़मीन पर
क्यूंकि
कलम ज़मीन पर नहीं चलती
ज़मीन पर कुदाल चलते हैं
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सुशील कुमार
दिल्ली, 03 मई 2014
(तस्वीर : गूगल से साभार)
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