सोमवार, 7 मई 2012

आईना

एक ऐसा राजदार है मेरे कमरे में
जिसे पता हैं
मेरी सारी खूबियाँ और खामियाँ
फिर भी भरोसेमंद इतना कि
उम्र भर अपने सीनें में
उसने दफ़्न रखा है मेरी हकीकत को

वह तब-तब हँसता होगा मुझपर
जब-जब अपना चेहरा साफ़ करने के लिए
मैं उसका बदन चमकाता हूँ

भावहीन एकटक वर्षों से वह
सिर्फ चुपचाप निहारता है मुझे
जैसे मेरे अस्तित्व को
आत्मसात कर लेना चाहता हो
खुद में उतार कर

एक भावहीन तराजू में
रोज तौला जाता हूँ 
इस बात से बेखबर कि
किसी की आँखों में
मेरी गफलतों के लिए भी
है कुछ जगह

बस एक क्षणभंगुरता ही है
जो हमदोनों को
समानुभूति की धरातल पर
एक साथ खड़ा करती है

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सुशील कुमार
दिल्ली
मई 7, 2012
      

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