शनिवार, 3 मार्च 2012

सलीब

दिशाओं के अहंकार को ललकारती भुजाएं
और
चीखकर बेदर्दी की इन्तहां को चुनौती देतीं
हथेलियों में धसीं कीलें 

एक-एक बूंद टपकता लहू
जो सींचता है उसी जमीन पर
लगे फूल के पौधों को
जहाँ सलीब पर खड़ा है सच
जब भी लगता है कि
हार रहा है मेरा सच
सलीब को देखता हूँ

लगता है कोई खड़ा है मेरे लिए
झूठ के खिलाफ
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सुशील कुमार
दिल्ली
मार्च 3, 2011

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