रविवार, 21 नवंबर 2010

सेलिब्रेटी हत्यारा

नरसंहार-अपहरण
करता रहा वह
और धीरे-धीरे
सेलिब्रेटी बन गया

तो क्या
अनाथालय के उदघाटन में
फीता काटने के
योग्य हो गया ?

चुनाव में
कातिलों की फेहरिस्त में
होता है उसका भी नाम
और वह जीत जाता है 
चुनाव हर बार 

लोग उसे रहनुमा समझकर  
उसके असली जन-प्रतिनिधि
होने के दावे को बल देते हैं  
और
उसकी पार्टी उसे
भावी राष्ट्र-निर्माता बताती है

तंत्र मुश्किल से
निकाल पाता है
एक भी गवाह
उसके खिलाफ

निचली और उच्च अदालतें
बेबस होकर देती है
क्लीन-चिट

फैसला आने तक
मामला सुप्रीम कोर्ट में है
और हम कटघरे में
जो उसे हत्यारा समझते हैं !

**सुशील कुमार**
जरुर पढ़िए 
बिनोद कुमार सिंह का लेख 
ब्लॉग पर 

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

कविता का जन्म


एक अजीब सी बेचैनी है 
जो मुझे समझ में आती तो है 
लेकिन 
अगर बात किसी को समझाने की हो 
तो अवर्णनीय हो जाती है
और
जिसकी वजह से कलम उठा कर 
खुद को टीपू सुल्तान  समझता हूँ  
और हमलावर तेवर से निकालता हूँ 
अपनी कॉपी 
रंग डालने के लिए 

पहनाने लगता हूँ नग्न बेचैनी को 
शब्दों का जामा 
गढ़ता हुआ वाक्य-दर-वाक्य 
कोसता हूँ निर्लज बेचैनी को 
जो नग्न हो जाती है पुन:
अगली पंक्ति तक जाते-जाते  

एक-एक वाक्य गढ़ने की जद्दोजहत में 
यह भूल जाता हूँ कि 
कविता हँस रही है मुझ पर 
यह सोचकर कि 
टूट ही जाएगी रीढ़ की हड्डी
इस बेचैन कवि की  
मुझ को गढ़ने में

और मैं मुस्कराता हूँ 
यह देख कर  
कि मेरी बेचैनी
रात के ढलते-ढलते  
कितनी अच्छी लग रही है  
पारंपरिक पोशाक में

पौ फटते ही जन्मी है कविता 
सारी बेचैनियों के खिलाफ ! 

**सुशील कुमार**

सोमवार, 8 नवंबर 2010

बाँझ (लघुकथा)

बलात्कार के एक महीने बाद ही महुआ के पेट से होने की खबर पूरी बस्ती में फ़ैल गई | गोबर्धन शाम को रोज की तरह थका-हारा नशे में धुत घर लौटा तो सब उसे घूरने लगे | बुझे हुए चेहरों पर तीर सी तीखी आंखे देख उसने सबसे पूछा कि आखिर क्या बात है, पर कोई कुछ न बोला | जामुनी भाभी से रहा न गया और वह चीख कर बोली "जा कमरे में अपनी नामर्दी का साबुत देख ले |" गोबर्घन को समझते देर न लगी कि पिछले पाँच साल की शादी-शुदा ज़िन्दगी में महुआ के पाँव जो भारी न हो पाए वो पिछले महीने इज्जत लुटने के बाद हो गए |
गोबर्धन उस कोठरी में दाखिल हुआ जहाँ महुआ सुबह अस्पताल से आने के बाद से ही रो रही थी | छोटी सी कोठरी महुआ की सिसकियों से भरी जा रही थी | गोबर्धन के मुंह पर ताला लगा था और शरीर जैसे काठ हो गया था |  कोशिश भी की तो कंठ ने साथ न दिया | एक भी शब्द मुंह से निकल न पाया | सोचता रहा कि आखिर क्या बोलूं ? बहुत मुश्किल घडी थी मानो पूरा बदन पत्थर हो गया हो |  वह आत्मग्लानी से मरा जा रहा था | झट से वह महुआ के पैर पर जा गिरा | बड़ी मुश्किल से बोल पाया " हमको माफ़ कर दो महुआ " | महुआ रोती रही, कुछ न बोली | बहुत देर तक दोनों के बीच संवादहीनता रही | गोबर्धन फिर बोला "हमको माफ़ कर दो महुआ, हम तुमको बहुत दुःख दिए हैं | कमी मुझमे थी और माँ, दीदी, मौसी सब तुमको जिंदगी भर गरियाती रहीं- कुलक्षणी, बाँझ है बाँझ | बस एक बार हमको माफ़ कर दो "   
महुआ ने झट पाँव खिंच लिया जैसे कोई पाप हो गया हो | भला पति-परमेश्वर पत्नी के पाँव छू सकता है कभी | वह फूट-फूट कर रोने लगी पर कुछ बोल न पायी |
** सुशील कुमार **

सोमवार, 1 नवंबर 2010

बाई-द-वे

जान पहचान हुई
और समझ लिया कि
हैं अपार संभावनाएं
दोस्त हो जाने की 
बस, बाई-द-वे
अपना सरनेम बता दिया होता
तो क्या बात थी
  ** सुशील   कुमार **