संभावनाओं का शहर
सुशील स्वतंत्र का ब्लॉग
रविवार, 10 अक्टूबर 2010
आग
जिसके बुझते-बुझते
सब कुछ
राख हो गया
पल दो पल में
सुलग गयी थी
वह आग !
**सुशील कुमार**
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