इस शहर में
साल दर साल
डायरी की तरह
बदल जाते हैं पते
हर नया पता
जैसे पुराने पते को
अंगूठा दिखा रहा होता है
सैकडो चिट्ठीयां
भटक रही हैं पुराने पतों पर
मेरे नाम की
कल की कब्र पर
आज के बाजार वाले
फार्मूले से डर लगता है
कहीं डायरी से
कैलेंडर न हो जाऊं !
** सुशील कुमार **
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