बारिश होने लगी फिर
उठने लगी
ज़मीन से सौंधी-सौंधी महक
जिसमें चीखने लगा खून
फिर मेरे बाप-दादाओं का
जिस जमीन को हम जोतते चले आये
हरी-भरी बनाते चले आये
सींचते चले आये खून से पीढ़ी-दर-पीढ़ी
जिस जमीन में मिल कर
हमारे खून की तीक्ष्ण गंध सौंधी हो गयी है
उस जमीन के लिए खून लेने का हक हमें चाहिए
शोषकों के संगीनों को
उनकी ही तरफ मोड़ने का हक भी हमें चाहिए
मिट्टी में सनी लालिमा से
आसमानों को रंगने का हक भी हमें चाहिए
-----------------------------------------------------
सुशील कुमार
10, सितम्बर, 2012
रामगढ, झारखण्ड
---------------------------------------------------------------
इस कविता को नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "मुक्ति संघर्ष" (साप्ताहिक) ने 2 से 8 जून 2013 वाले अंक में प्रकाशित किया था |
उठने लगी
ज़मीन से सौंधी-सौंधी महक
जिसमें चीखने लगा खून
फिर मेरे बाप-दादाओं का
जिस जमीन को हम जोतते चले आये
हरी-भरी बनाते चले आये
सींचते चले आये खून से पीढ़ी-दर-पीढ़ी
जिस जमीन में मिल कर
हमारे खून की तीक्ष्ण गंध सौंधी हो गयी है
उस जमीन के लिए खून लेने का हक हमें चाहिए
शोषकों के संगीनों को
उनकी ही तरफ मोड़ने का हक भी हमें चाहिए
मिट्टी में सनी लालिमा से
आसमानों को रंगने का हक भी हमें चाहिए
-----------------------------------------------------
सुशील कुमार
10, सितम्बर, 2012
रामगढ, झारखण्ड
---------------------------------------------------------------
इस कविता को नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "मुक्ति संघर्ष" (साप्ताहिक) ने 2 से 8 जून 2013 वाले अंक में प्रकाशित किया था |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें