केदारनाथ की तबाही में
असंख्य लाशों पर
तैनात एक मगरूर लिंग
अपनी उपासना के
यथाशीघ्र शुरू होने की
बाट जोह रहा है
और इंसानी दिमाग
दाह-संस्कार की जगह आरती
के सवाल पर चुप है
क्रूर धर्मान्धताओं को
शालीनता से नजरअंदाज करने की
अश्लील कोशिशों पर
इंसानी दिमाग की चुप्पी
हैरान करती है
सबके पास हैं आँखें
और यह विवेक भी
कि इन आँखों को सुविधानुसार
खोला और बंद किया जा सके
इच्छानुसार अनदेखा किया जा सके
नंगी सच्चाईयों को
हैरतंगेज है यह
और सच भी
कि इंसानी दिमाग
जो संभावनाओं की असंख्य
आकाशगंगाओ को एक साथ
नियंत्रित करने का सामर्थ्य रखता है
उसमें ही कहीं छिपी है
घोर अन्धकार से भरी
एक ऐसी सुरंग
जहाँ से लौटकर
कोई प्रतिक्रिया,
कोई आवाज नहीं आती
अगर ऐसा नहीं होता
तो भूगोल का शिक्षक,
जो रोज यह पढाता है कि
सूरज न तो उगता है
और न ही डूबता है
बल्कि पृथ्वी ही उसका चक्कर लगाती है,
अपने घर में छठ क्यूँ मनाता ?
हमारी कलंदरबाजियों नें
आँखों के साथ कुछ ऐसा
खिलवाड़ किया है
कि यह वही देखने लगी हैं
जिसमें तर्क की कोई गुंजाईश न हो
लेकिन
इस बात से कब तक
बेखबर रहा जा सकता है
कि शालीनता से
नजरंदाज कर दिया गया सच
संभावनाओं के असंख्य आकाशगंगाओ में
चीखता है
और अमर हो जाता है
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सुशील कुमार
दिल्ली, 10 जुलाई 2013
(तश्वीर : गूगल से साभार)
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शब्दार्थ : छठ
उगते और डूबते सूर्य की उपासना का लोकपर्व छठ, कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है। सख्त नियम-कायदों का पालन करते हुए मनाया जाने वाला यह पर्व, मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, नेपाल के तराई क्षेत्रों और आजकल दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों में भी में मनाया जाता है।
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