रोज की तरह
शाम को घर लौटा
उतार दिया एक-एक कर
कमीज, पतलून, चश्मा और जूते
बेटे को गोद में उठाया ही था कि
वह जोर-जोर से रोने लगा
ऐसा लगा किसी अजनबी नें
लपक लिया हो उसको
मैनें भाग कर आईने में
अपना चेहरा देखा
ओह, कई चेहरे चिपके हैं परत-दर-परत
एक-एक कर
उतारता गया चेहरों को
ये कन्सलटेंट गया
ये समाजसेवी
ये एक्टिविस्ट
ये प्रशिक्षक
ये मूल्यांकनकर्ता
ये कवि भी गया
अब अपनी जेब से
निकाल कर पापा का चेहरा
चिपकाया खाली-खाली से मुखड़े पर
बेटे को गोद में उठाया
और
घोडा-घोडा खेलता रहा बहुत देर तक
उसके साथ
---------------------------------------------------
सुशील कुमार
दिल्ली, 14 , अप्रैल 2012
श्रोत : http ://sambhawnaonkashahar.blogspot.in
शाम को घर लौटा
उतार दिया एक-एक कर
कमीज, पतलून, चश्मा और जूते
बेटे को गोद में उठाया ही था कि
वह जोर-जोर से रोने लगा
ऐसा लगा किसी अजनबी नें
लपक लिया हो उसको
मैनें भाग कर आईने में
अपना चेहरा देखा
ओह, कई चेहरे चिपके हैं परत-दर-परत
एक-एक कर
उतारता गया चेहरों को
ये कन्सलटेंट गया
ये समाजसेवी
ये एक्टिविस्ट
ये प्रशिक्षक
ये मूल्यांकनकर्ता
ये कवि भी गया
अब अपनी जेब से
निकाल कर पापा का चेहरा
चिपकाया खाली-खाली से मुखड़े पर
बेटे को गोद में उठाया
और
घोडा-घोडा खेलता रहा बहुत देर तक
उसके साथ
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सुशील कुमार
दिल्ली, 14 , अप्रैल 2012
श्रोत : http ://sambhawnaonkashahar.blogspot.in
बेहतर....धूमिल की कविता "घर में वापसी" की याद दिला दी आप ने
जवाब देंहटाएंकोशिश जारी रखे
धन्यवाद