संभावनाओं का शहर
सुशील स्वतंत्र का ब्लॉग
शनिवार, 2 जनवरी 2016
मेरा पहला कविता संग्रह "संभावनाओं का शहर"
साथियों,
मेरा पहला कविता संग्रह "संभावनाओं का शहर" अब आपके सामने है| Raja Deori भाई का बेहतरीन पेंटिंग के लिए आभार व्यक्त करता हूँ| उनकी पेंटिंग ने मेरे कविता संग्रह "संभावनाओं का शहर" के आवरण को सजीव बना दिया |
मेरा पहला कविता संग्रह "संभावनाओं का शहर" अब आपके सामने है| Raja Deori भाई का बेहतरीन पेंटिंग के लिए आभार व्यक्त करता हूँ| उनकी पेंटिंग ने मेरे कविता संग्रह "संभावनाओं का शहर" के आवरण को सजीव बना दिया |
शब्दारंभ प्रकाशन से यह किताब आई है | इसके लिए Krishna Kant भाई का आभार| Ashok भाई का मैं संग्रह की भूमिका लिखने के लिए आभारी हूँ| विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में 9 जनवरी से Shabdarambh Prakashan के स्टॉल पर यह यह कविता संग्रह उपलब्ध रहेगा| आवरण डिजाईन के लिए मेरे प्रिय Ravi का शुक्रिया |
कविताएँ पढ़कर मुझे सूचित जरूर कीजिएगा |
कविताएँ पढ़कर मुझे सूचित जरूर कीजिएगा |
शुक्रवार, 6 नवंबर 2015
भीड़तन्त्र में अख़लाक़
तुम ही तो थे जिसको माँ के गर्भ से
तलवार घोंपकर बहार निकाला गया था
कबाब के माफिक भुना गया था तुम्हें
याद है अख़लाक़ तेरह बरस पहले भी
मीनारों, मेहराबों और गगनचुम्बी पताकों में
दादरी सा मनहूस सन्नाटा पसर गया था
हाशिमपुरा, गुजरात, मुजफ्फरनगर,
मेरठ, त्रिलोकपुरी और बवाना से
तुम बच कैसे सकते हो अख़लाक़?
अभी तुम्हारी कब्र की खुदाई से
शायद सच्चाई साबित हो जाएगी
तुम्हारे पेट में पड़े मांस से
संभवतः कुछ सुराग मिल जाएगा
क्यूंकि तुम्हारे फ्रिज में रखा मांस
किसी काम का नहीं निकला
जब तक यह साबित न हो जाए
कि मंदिर के लाउडस्पीकर से जारी किया गया
मौत का फतवा बेवजह नहीं था
जाँच जारी रहेगी
जनतंत्र जैसे-जैसे भीड़तंत्र में तब्दील होने लगता है
तंत्र का भीड़ पर यकीन बढ़ने लगता है
इसी भीड़ ने संकल्प लिया है कि
तुम्हारे प्रियजनों को गाँव छोड़ने नहीं दिया जाएगा
इसी भीड़ ने तुम्हारे गाँव में
अमन बहाली का जिम्मा लिया है
इसी भीड़ से कोई उठता है
और तुम्हारे लिए कविता लिख रहे कवियों को
गाली देने लगता है
इसी भीड़ से कोई
फेसबुक पर गोली मरने की घमकी देता है
और मेरे आसपास बारूद की गंध बिखर जाती है
इसी भीड़ से कोई पूछता है
कौन है ये कलबुर्गी, पंसारे और दाभोलकर
इसी भीड़ से कोई हँसते हुए कहता है
साहित्यकारों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों द्वारा
पुरस्कारों का लौटाया जाना साजिश है
मांस के लोथड़ों से लदे
अखबार के पन्ने भारी हो गए हैं
हेडलाईन्स चीख रहे हैं
और ऐसे में अखबारों से रिसता खून
जिनके दामन को दागदार न कर सका
उनके चारो तरफ जमा होने लगी है भीड़
तुम कब तक बचोगे अख़लाक़?
जनतंत्र में चुपके से जगह बनाता भीड़तंत्र
भीड़ और तंत्र का तुम्हारे खिलाफ नापाक षड़यंत्र है
जिसमें जन पर तंत्र भारी होता जा रहा है
और जो कलबुर्गी के लिए खड़े हैं
अगर भीड़ उन्हें अख़लाक़ न बना सकी
तो तंत्र उनके लिए यातना गृहों के दरवाजे खोल देगा
आखिर तुम कब तक बचोगे इस भीड़तंत्र में
ओ अख़लाक़?
______________
सुशील कुमार 05 नवम्बर, 2015
दिल्ली
सुशील कुमार 05 नवम्बर, 2015
दिल्ली
मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015
तुम्हारी ऊँगली पकड़कर
तुम्हारे हाथों से पैदा हुए
कोयला खदानों पर भागते-दौड़ते बच्चे
जब तुम्हें चाची कह कर पुकारते होंगे
पूरे कोयलांचल की कालिमा
तुम्हारे मातृत्व-भाव से लाल हो जाती होगी
घर से ड्यूटी रूम का फासला
तुम्हारे घुटने के दर्द को नापने का पैमाना रहा है
घर पर बच्चों को छोड़
जब तुम मरीज के घाव पोंछती हो
तुम्हारे पिछले किरदार की माँ भी तुममें शामिल होती है
रोगियों के खान-पान का हिसाब
सिस्टर थॉमस को देते समय
अंग्रेजी में तुम 'ब्रेड' नहीं लिख पाती
लेकिन किसी रोगी को अंग्रेजी में लिखी दवाईयां देने में
आज तक तुमसे कोई गलती नहीं हुई
एक बराबर गोल-गोल अक्षरों को मिलाकर
जब तुम्हारा हस्ताक्षर पूरा होता है
तो यह पढ़ने में "गीता लाल" नहीं लगता
शिलापट्ट में दर्ज़ कोई संघर्ष-गाथा लगता है
सोचता हूँ, अगर तुमने पिता को
नून, तेल, लकड़ी से आज़ाद नहीं किया होता
तो साम्यवादी आन्दोलन को
आखरी साँस तक लड़ने वाला कोमरेड बद्री न मिला होता
तुम्हारा ड्यूटी रूम और पिता का पार्टी ऑफिस
त्याग और संघर्ष के शिक्षालय हैं
तुम्हारी कड़कमिज़ाजी नाते-रिश्तेदारों की
फुसफुसाहटों का केन्द्रीय विषय रही
लेकिन तुम बेपरवाह पिता की गैरमौजूदगी में
घर का अनुशासन संभालती रही
तुमने उतनी ही व्यवहार कुशलता अपनाई
जितनी समाज में एक स्त्री को मर्द बने रहने के लिए चाहिए
तुम अपने नाखूनों को नुकीला कर
शेरनी बन जाती थी और चीर देती थी बीचों-बीच
हमारी ओर उठी हर बुरी नज़र को
खदानों में फटने वाले डायनामाईट सी
तुम्हारी दहाड़ से कोयलांचल थर्रा उठता था
लेकिन विश्वकर्मा पूजा के दिन
जब मुझे लहुलुहान
तुम्हारे स्वस्थ्य केंद्र में लाया गया था
सिर्फ उसी दिन पहली बार देखा था
तुम चुप हो गई थी, बिलकुल चुप
व्यंग भरी निगाहों
और बहलाती-फुसलाती सहानुभूतियों के बीच
सिर पर ऐप्रन पहने
तुम समय पर ड्यूटी करती रही रोजाना
और इस तरह ड्यूटी रूम में टंगी घड़ी में
तुम बीतती रही दिन-ब-दिन
घर की जिन सीढियों पर
तुम्हारे पांव फिसल गए थे
तुम्हारी ऊँगली पकड़कर
मुझे उन सीढ़ियों पर चढ़ते हुए छत पर जाना है
देखना है
तुम्हारे खून की तराई से बने घर की छत से
कैसा दिखता है राष्ट्रीय राजमार्ग तैंतीस
घर के पीछे का हरा पठारी जंगल
ईंट के भट्ठे और चिमनियाँ
जहाँ से तुमने लडाई शुरू की
तुम्हारी ऊँगली पकड़कर
एक बार कोलियरी के उन खदानों में चलना है
जहाँ संघर्ष की परिणति में
कोयला हीरा बन जाता है |
तुम्हारे हाथों से पैदा हुए
कोयला खदानों पर भागते-दौड़ते बच्चे
जब तुम्हें चाची कह कर पुकारते होंगे
पूरे कोयलांचल की कालिमा
तुम्हारे मातृत्व-भाव से लाल हो जाती होगी
घर से ड्यूटी रूम का फासला
जब तुम्हें चाची कह कर पुकारते होंगे
पूरे कोयलांचल की कालिमा
तुम्हारे मातृत्व-भाव से लाल हो जाती होगी
घर से ड्यूटी रूम का फासला
तुम्हारे घुटने के दर्द को नापने का पैमाना रहा है
घर पर बच्चों को छोड़
जब तुम मरीज के घाव पोंछती हो
तुम्हारे पिछले किरदार की माँ भी तुममें शामिल होती है
रोगियों के खान-पान का हिसाब
घर पर बच्चों को छोड़
जब तुम मरीज के घाव पोंछती हो
तुम्हारे पिछले किरदार की माँ भी तुममें शामिल होती है
रोगियों के खान-पान का हिसाब
सिस्टर थॉमस को देते समय
अंग्रेजी में तुम 'ब्रेड' नहीं लिख पाती
लेकिन किसी रोगी को अंग्रेजी में लिखी दवाईयां देने में
आज तक तुमसे कोई गलती नहीं हुई
आज तक तुमसे कोई गलती नहीं हुई
एक बराबर गोल-गोल अक्षरों को मिलाकर
जब तुम्हारा हस्ताक्षर पूरा होता है
तो यह पढ़ने में "गीता लाल" नहीं लगता
शिलापट्ट में दर्ज़ कोई संघर्ष-गाथा लगता है
जब तुम्हारा हस्ताक्षर पूरा होता है
तो यह पढ़ने में "गीता लाल" नहीं लगता
शिलापट्ट में दर्ज़ कोई संघर्ष-गाथा लगता है
सोचता हूँ, अगर तुमने पिता को
नून, तेल, लकड़ी से आज़ाद नहीं किया होता
तो साम्यवादी आन्दोलन को
आखरी साँस तक लड़ने वाला कोमरेड बद्री न मिला होता
तुम्हारा ड्यूटी रूम और पिता का पार्टी ऑफिस
त्याग और संघर्ष के शिक्षालय हैं
तुम्हारी कड़कमिज़ाजी नाते-रिश्तेदारों की
फुसफुसाहटों का केन्द्रीय विषय रही
लेकिन तुम बेपरवाह पिता की गैरमौजूदगी में
घर का अनुशासन संभालती रही
तुमने उतनी ही व्यवहार कुशलता अपनाई
जितनी समाज में एक स्त्री को मर्द बने रहने के लिए चाहिए
तुम अपने नाखूनों को नुकीला कर
शेरनी बन जाती थी और चीर देती थी बीचों-बीच
शेरनी बन जाती थी और चीर देती थी बीचों-बीच
हमारी ओर उठी हर बुरी नज़र को
खदानों में फटने वाले डायनामाईट सी
तुम्हारी दहाड़ से कोयलांचल थर्रा उठता था
लेकिन विश्वकर्मा पूजा के दिन
जब मुझे लहुलुहान
लेकिन विश्वकर्मा पूजा के दिन
जब मुझे लहुलुहान
तुम्हारे स्वस्थ्य केंद्र में लाया गया था
सिर्फ उसी दिन पहली बार देखा था
तुम चुप हो गई थी, बिलकुल चुप
सिर्फ उसी दिन पहली बार देखा था
तुम चुप हो गई थी, बिलकुल चुप
व्यंग भरी निगाहों
और बहलाती-फुसलाती सहानुभूतियों के बीच
सिर पर ऐप्रन पहने
तुम समय पर ड्यूटी करती रही रोजाना
और इस तरह ड्यूटी रूम में टंगी घड़ी में
तुम बीतती रही दिन-ब-दिन
और बहलाती-फुसलाती सहानुभूतियों के बीच
सिर पर ऐप्रन पहने
तुम समय पर ड्यूटी करती रही रोजाना
और इस तरह ड्यूटी रूम में टंगी घड़ी में
तुम बीतती रही दिन-ब-दिन
घर की जिन सीढियों पर
तुम्हारे पांव फिसल गए थे
तुम्हारी ऊँगली पकड़कर
मुझे उन सीढ़ियों पर चढ़ते हुए छत पर जाना है
देखना है
तुम्हारे खून की तराई से बने घर की छत से
कैसा दिखता है राष्ट्रीय राजमार्ग तैंतीस
घर के पीछे का हरा पठारी जंगल
ईंट के भट्ठे और चिमनियाँ
तुम्हारे पांव फिसल गए थे
तुम्हारी ऊँगली पकड़कर
मुझे उन सीढ़ियों पर चढ़ते हुए छत पर जाना है
देखना है
तुम्हारे खून की तराई से बने घर की छत से
कैसा दिखता है राष्ट्रीय राजमार्ग तैंतीस
घर के पीछे का हरा पठारी जंगल
ईंट के भट्ठे और चिमनियाँ
जहाँ से तुमने लडाई शुरू की
तुम्हारी ऊँगली पकड़कर
एक बार कोलियरी के उन खदानों में चलना है
जहाँ संघर्ष की परिणति में
कोयला हीरा बन जाता है |
तुम्हारी ऊँगली पकड़कर
एक बार कोलियरी के उन खदानों में चलना है
जहाँ संघर्ष की परिणति में
कोयला हीरा बन जाता है |
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सुशील
कुमार
दिल्ली,
21, जुलाई 2014
शनिवार, 10 मई 2014
11 मई 2014 को प्रभात ख़बर में छपीं मेरी दो कविताएँ
प्रभात ख़बर में 11 मई 2014 को मेरी दो कविताएँ छपीं हैं | निम्न लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है |
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/2825190
शुक्रवार, 2 मई 2014
ताकि इसी बहाने मैं बचा रहूँ
उम्मीद से लिपटी हुई सुबहों
और हताश शामों के बीच
रोज कुछ ऐसा घटित हो रहा है
जो जीवन के और करीब ला रहा है
खत्म होती संवेदनाओं की धरती से
बस एक कंकड़ चुरा कर रख रहा हूँ रोज
ताकि इस जमीन के अवशेष से
फिर रच सकूँ एक नई धरती
ताकि इसी बहाने मैं बचा रहूँ
विध्वंस के इस खेल में
ताकि अपनी नश्वरता को बहका सकूँ
फिर एक बार
रोज कुछ ऐसा घटित हो रहा है
जो जीवन के और करीब ला रहा है
खत्म होती संवेदनाओं की धरती से
बस एक कंकड़ चुरा कर रख रहा हूँ रोज
ताकि इस जमीन के अवशेष से
फिर रच सकूँ एक नई धरती
ताकि इसी बहाने मैं बचा रहूँ
विध्वंस के इस खेल में
ताकि अपनी नश्वरता को बहका सकूँ
फिर एक बार
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सुशील कुमार
दिल्ली, 03 मई 2014
(तस्वीर : गूगल से साभार)
कलम और कुदाल
तुमने बहुत लिखा
उनपर, उनके हालात पर
तुम्हारी कलम जब तक बोलती रही
वे चुप रहे, चुप ही रहे
कागज पर फैली कालिख नें
तुम्हें प्रकाशकों का चहेता बनाया
शब्द जो दफ्न हुए तुम्हारे काव्य संग्रहों में
फिर उठ न पाए
तुम क्यूँ न रोक देते हो लिखना
और अँधेरी गलियों में सुनते हो उनको
जो बोल नहीं पाते
तुम्हारी कविताओं में
जान तो लो
कलम की भी सीमाएँ हैं
जिनके पार ही
दर्द खोदा जाता है
उतरना ही पड़ता है ज़मीन पर
क्यूंकि
कलम ज़मीन पर नहीं चलती
ज़मीन पर कुदाल चलते हैं
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सुशील कुमार
दिल्ली, 03 मई 2014
(तस्वीर : गूगल से साभार)
इंडिया गेट की एक शाम
गोधुली जब रंग-भेद मिटा रही थी
जब झुण्ड में बगुले
अपनी नीड़ की ओर जा रहे थे
जब सूरज इंडिया गेट के दोनों दीवारों के बीच
अमर जवान ज्योति में डूब रहा था
और
आईसक्रीम के पंक्तिबद्ध
ठेलों का मेला लगने लगा था
मुझसे मिलने आई थी शाम
इंडिया गेट पर
लालिमा की असंख्य परतें
अंतहीन आकाश का कवच बनकर
लुभा रही थी
नो फ्लाईंग जोन में
सुरक्षा नियमों से बेख़बर
परिन्दे उड़ रहे थे
संगीनों के ऊपर
बच्चे भेलपूड़ी खाकर
कागज की प्लेट को
कूड़ेदान में डालकर
कमीज में हाथ पोंछ रहे थे
पुलिसवाले के पीछे बैठा ज्योतिषी
बता रहा था भविष्य
और
लैम्प-पोस्ट के नीचे बैठा
चित्रकार बना रहा था
पर्यटकों के सजीव चित्र
बगल में बिक रहे खिलौनों को
नजरअंदाज करके
फूलों सी महकती हुई एक बच्ची
गजरे बेच रही थी
बढ़ते अँधेरे के साथ-साथ
वृक्ष के तनों के पास
अन्तरंग हो रहे युगलों की छवि
स्याह होती जा रही थी
धीरे-धीरे पुलिस कंट्रोल रूम
की गाड़ियाँ बढने लगी थी
और पर्यटक घटने लगे थे
जाते जाते पापा से
पूछ रहा था एक मासूम
बन्दुक पर उलटी टोपी का मतलब
मैं पढ़ रहा था दीवारों मे खुदे
शहीदों के नाम
जा रही थी मुझसे मिल कर
इंडिया गेट पर एक शाम
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सुशील कुमार
दिल्ली, 03, मई 2014
(तस्वीर : गूगल से साभार)
गुरुवार, 24 अप्रैल 2014
लेनिन की जीवनी का मुड़ा हुआ पन्ना
इस कोलाहल के बीच
कुछ लोग जयकारा नहीं लगा रहे हैं
टोपी भी नहीं पहनते हैं
न लाठी, न तलवार, न त्रिशूल, न टीका
कुछ पूछो तो मुस्कुरा देते हैं बस
क्या वे सच में तृप्त लोग हैं
क्या ये उनकी आतंरिक शांति है
या ऐसे लोगों का मौन
ज्वालामुखी विस्फोट से ठीक पहले
पर्वत की चोटी पर पसरे सन्नाटे जैसा है
अपने अन्दर खौलता हुआ लावा भरकर
ये लोग चुपचाप जोत रहे हैं
आज की बेनूरी शाम
और क्रांति के भोर के बीच की बंजर ज़मीन
जहां उनके पसीने की एक-एक बूंद
मिट्टी में दबकर अंकुरित हो रही है
ये लोग उस मुड़े हुए पन्ने से आगे
पढ़ रहे हैं लेनिन की जीवनी
जिसे फाँसी के तख्ते तक जाने से ठीक पहले
भगत सिंह अपने सेल में छोड़ गए थे
ये लोग सोवियत संघ की कब्र पर उपजी
हरी विषाक्त घास खाने वालों में नहीं हैं
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सुशील कुमार
दिल्ली, 24 अप्रैल 2014
कुछ लोग जयकारा नहीं लगा रहे हैं
टोपी भी नहीं पहनते हैं
न लाठी, न तलवार, न त्रिशूल, न टीका
कुछ पूछो तो मुस्कुरा देते हैं बस
क्या वे सच में तृप्त लोग हैं
क्या ये उनकी आतंरिक शांति है
या ऐसे लोगों का मौन
ज्वालामुखी विस्फोट से ठीक पहले
पर्वत की चोटी पर पसरे सन्नाटे जैसा है
अपने अन्दर खौलता हुआ लावा भरकर
ये लोग चुपचाप जोत रहे हैं
आज की बेनूरी शाम
और क्रांति के भोर के बीच की बंजर ज़मीन
जहां उनके पसीने की एक-एक बूंद
मिट्टी में दबकर अंकुरित हो रही है
ये लोग उस मुड़े हुए पन्ने से आगे
पढ़ रहे हैं लेनिन की जीवनी
जिसे फाँसी के तख्ते तक जाने से ठीक पहले
भगत सिंह अपने सेल में छोड़ गए थे
ये लोग सोवियत संघ की कब्र पर उपजी
हरी विषाक्त घास खाने वालों में नहीं हैं
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सुशील कुमार
दिल्ली, 24 अप्रैल 2014
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