गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

लेनिन की जीवनी का मुड़ा हुआ पन्ना



















इस कोलाहल के बीच
कुछ लोग जयकारा नहीं लगा रहे हैं
टोपी भी नहीं पहनते हैं
न लाठी, न तलवार, न त्रिशूल, न टीका
कुछ पूछो तो मुस्कुरा देते हैं बस

क्या वे सच में तृप्त लोग हैं
क्या ये उनकी आतंरिक शांति है
या ऐसे लोगों का मौन
ज्वालामुखी विस्फोट से ठीक पहले
पर्वत की चोटी पर पसरे सन्नाटे जैसा है

अपने अन्दर खौलता हुआ लावा भरकर
ये लोग चुपचाप जोत रहे हैं
आज की बेनूरी शाम
और क्रांति के भोर के बीच की बंजर ज़मीन
जहां उनके पसीने की एक-एक बूंद
मिट्टी में दबकर अंकुरित हो रही है

ये लोग उस मुड़े हुए पन्ने से आगे
पढ़ रहे हैं लेनिन की जीवनी
जिसे फाँसी के तख्ते तक जाने से ठीक पहले
भगत सिंह अपने सेल में छोड़ गए थे

ये लोग सोवियत संघ की कब्र पर उपजी
हरी विषाक्त घास खाने वालों में नहीं हैं

---------------------------------------------
सुशील कुमार
दिल्ली, 24 अप्रैल 2014

मिट्टी में उतरे बिना

















सदियों से
बदलते आए हैं सवाल 
जवाब वही होते हैं 
तयशुदा  

अंकुरण की तरह 
मिट्टी में उतरे बिना 
नहीं बदलते हैं जवाब

_____________________
सुशील कुमार 
दिल्ली, 24 अप्रैल 2014  
(तस्वीर गूगल से साभार)

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

वक्त नाजुक है























उसने भेष बदला है 
क्यूंकि खुलेआम  
वह घूम नहीं सकता था यहाँ  

वक्त नाजुक है 
अब मेमने भी उसको 
भेंड समझने लगे हैं 

खून से लथपथ पंजे 
आसानी से मासूमों के 
करीब जा रहे हैं 

---------------------------------------------------

सुशील कुमार 
दिल्ली, 23 अप्रैल, 2014

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

मृत्यु की तरह जीवन











सब कुछ है यहाँ
सब के लिए
धूप, हवा, पानी,
भोजन, वस्त्र, घर
मुस्कराहटें और कहकहें

बस, मृत्यु की तरह जीवन
बराबरी से बाँटा नहीं गया 
--------------------------------------------
सुशील कुमार
दिल्ली, 22 अप्रैल 2014

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

भय

















उपवास भय से
आरती भय से 
परिक्रमा भय से 
जागरण भय से 

भय तुमसे नहीं 
तुम तक पहुंचाने वालों से 


--------------------------------------------
सुशील कुमार 
दिल्ली, 22 अप्रैल 2014 

रविवार, 13 अप्रैल 2014

उनकी कविता



















वे कविता नहीं लिखते
कवियों की तरह
वे जीवन और मृत्यु के बीच
ढूंढते हैं सत्य
और बन जाती है कविता

उनको मालूम है
इन दो बड़े छलावों के बीच
भूख ही सत्य है

वे मुट्ठी भींच कर 
लिख रहे हैं कविता   

------------------------
सुशील कुमार
14 अप्रैल 2014
दिल्ली