शुक्रवार, 28 जून 2013

लोकसत्य के साहित्य पन्ने पर 28 जून 2013 को छपी मेरी दो कविताएँ ।

लोकसत्य के साहित्य पन्ने पर 28 जून 2013 को छपी मेरी दो कविताएँ ।
(सम्पादक, राकेश त्रिपाठी जी, का आभार)


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बुधवार, 26 जून 2013

मतलब होता है



होता है 

हर बार  
लाठी चार्ज का 
मतलब होता है 

शासन की 
फाईलों में नहीं 
हमारे कन्धों पर 
दर्ज़ होता है 
जिसका जवाब 
मांगती हैं 
हमारी पीढ़ियाँ 

दमन की 
हर कोशिश का 
हर बार कोई 
मतलब होता है 
और मतलब होता है 
हर बार 
हमारी चुप्पियों का भी  


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सुशील कुमार 
दिल्ली, 26 जून, 2013

(तश्वीर : गूगल से साभार)

सोमवार, 24 जून 2013

सबसे ज़रूरी शर्त



दोनों हाथों से 
मैं पेट पकड़ कर 
भूख टटोल रहा था 
कल-परसो से नहीं
बरसों से 

न जाने तुम कब आए 
और मेरी छाती पर
लिख गए इन्कलाब 
  
बस उस दिन से
मेरे सवालात सिर्फ मेरे नहीं रहे
आसमान की लालिमा 
चेहरे पर उतर आई 
पेट को जकड़कर रखे हाथ 
मुट्ठी बन हवा में लहराने लगे 

फिर बारी आई कन्धों की
जहाँ झंडे फहराए गए 

सिर की, 
जहाँ टोपी लगाई गई 

आँखों की,
जहाँ सजाये गए 
बदले हुए कल के सामान 

मुँह की, 
जिसमें बारूद भरे गए 

छाती, कंधे, सिर और आँखों के बाद 
तुम ठहर गए 
मैनें तुम्हें अपना पेट दिखाया 
जो अभी भी खाली था 
और उपलब्ध भी
तुमने मुनासिब नहीं समझा 
इस संदिग्ध पेट को हाथ लगाना     

तुम जानते थे 
अच्छी तरह कि 
तुम्हारे बदलाव की लहर में 
मेरे पेट का खाली रहना 
सबसे ज़रूरी शर्त है 


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सुशील कुमार 
दिल्ली, 25 जून 2013

(तश्वीर : गूगल से साभार)

घर-बाज़ार





















जैसे-जैसे मुहल्ले में 
भीड़ बढ़ती गई 
बाज़ार को जगह देने के लिए 
घर सिमटने लगे 
पता ही नहीं चला  
कब दबे-पाँव घरों में
घुस आया बाज़ार   

शहर के तंबू में 
पनाह लिए हुए 
गाँव सोचता है  
कि कोई और गाँव आए  
तो दुआ-सलाम हो 


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सुशील कुमार 
दिल्ली, 24 जून, 2013



(तश्वीर : गूगल से साभार) 

बुधवार, 19 जून 2013

चाँद की वसीयत























चाँद नें अपनी रातों की बादशाहत का विस्तार करना चाहा
उसने बनाई एक वसीयत 
जिसमें एक मटरगश्त को 
आधी सल्तनत दे दी गई 
जिसे रात भर जागने और भटकने की लत हो और 
जो बुन सके सौम्यता की इतनी बड़ी चादर 
जिससे पूरी कायनात पर जिल्द चढ़ाया जा सके 

इस तरह मेरे हिस्से में जमीन आई और 
उसके पास रहा आसमान  

रातों को ये दोनों सुलतान 
भटकते हैं अपनी-अपनी रियाया की थकान 
बटोरने के लिए 
जिसे ढ़ोकर उतर जाते हैं 
क्षितिज की गहरी घाटियों में 

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सुशील कुमार 
दिल्ली 
19 जून, 2013   

मंगलवार, 11 जून 2013

रौशनदान













सोचता हूँ किसने बनाया होगा
सबसे पहले अपने घर में रौशनदान

दिन ढलते ही रौशनदान से  
अन्धेरा भी दाखिल हो जाता है कमरे में 
और मुझको लगता है कि  
रौशनदान की मिलीभगत 
रौशनियों से कम और अंधेरों से ज्यादा है  

घर के अन्दर बना एक घर
जहाँ मुझसे ज्यादा समय 
कबूतर अपनी मादा के साथ रहता है 
जिनकी गुटरगूँ मुझे ही दखलअंदाज बतातीं हैं 
मैं अक्सर दबे पाँव कमरे से बहार आ जाता हूँ 

नींद से ठीक पहले 
जब ऑंखें और कमरे को बत्ती बंद होती है 
मैं देख पाता हूँ 
एक रौशनदान जड़ा है दूर क्षितिज पर 
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सुशील कुमार 
दिल्ली 
12 जून 2013

शनिवार, 8 जून 2013

चार मुक्तक : सुशील कुमार

चार मुक्तक : सुशील कुमार 

(1)
लबों पर इलज़ाम लगे हैं, खामोश रह जाने के लिए
मुजरिम अल्फ़ाज भी हैं, साथ न निभाने के लिए 
है कहाँ मुमकिन बयान-ए-बेकरारी
ये फलसफा तो है बस समझ जाने के लिए

(2)
प्रेम की हर कसौटी पर खरा उतरा हूँ 
दकियानूस जमाने के लिए मैं बड़ा खतरा हूँ
दुनियाँ के रास्ते अब मुश्किल न होंगें
तेरी जुल्फ़ की पेंचों से होकर जो गुजरा हूँ

(3)
चारो तरफ है अफरातफरी, 
ये कैसी डगर है 
बुझे-बुझे चेहरों वाला कैसा महानगर है
राशन की कतार में खडा हूँ सुबह से
गाँव से बिछड़कर जीवन एक मीठा जहर है


(4)
जीवन के सफ़र में देखो, है कितना तन्हा आदमी 
रहता है वह महफ़िलों में, फिर भी है तन्हा आदमी
आता है इस रंग मंच पर तन्हा अपना पाठ लिए 
जाएगा भी इस भू पटल से देखो तन्हा आदमी

गुरुवार, 6 जून 2013

अनगढ़ पत्थर

तश्वीर गूगल से साभार 





















सदियों से
हमें यह सिखाया गया है कि 
पत्थर छेनी और हथौड़ी से तराशे जाते हैं
और हम देते चले आये हैं 
पाषाण खण्डों को विभिन्न आकार

छेनी की धार और हथौड़ी की मार 
को पत्थर पहचानते हैं और 
जो तराशे जाने को नियति मानते हैं 
पूज्यनीय या शोभनीय हो जाते हैं 

विशाल पर्वतों और दुर्गम पठारों में 
आज भी हैं विलक्षण शिलाखण्ड 
जो तराशे नहीं गए
इसलिए पूजे या सजाये भी नहीं गए

पहाड़ों के स्वाभाविक सौन्दर्य का हिस्सा बनकर
वे चेतना के अंकुरण की बाट जोह रहे हैं 

जब भी कभी जीवन संगीत  
इन पहाड़ों पर बजेगा
सबसे पहले उठ खड़े होंगे 
ये अनगढ़ पत्थर
आकार से मुक्त और चेतन 


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सुशील कुमार 
दिल्ली 
7 जून 2013

मंगलवार, 4 जून 2013

हांफ रही है पूंजी

तश्वीर गूगल से साभार  


















बहुत तेजी से भागती है पूंजी 
मानो वक्त से आगे निकल जाना हो इसे 
मानो अपनी मुट्ठी में दबोच लेना हो 
समूचा ब्रह्माण्ड समूची धरती, 
खेत, नदियाँ और पहाड़ 
बच्चों की किलकारियां, 
मजदूरों का पसीना, 
किसानों का श्रम, 
मेहनतकशों के हकूक,
आज़ादाना नारे, 
और वह सब कुछ जो उसकी रफ़्तार के आड़े आता हो 
वह बढ़ाना चाहती है अपनी रफ़्तार प्रतिपल 
लेकिन बहुत जल्दी हांफने लगती है पूंजी  

और जब पूंजी हांफने लगती है  
तब खेतों में अनाज की जगह बन्दुकें उगाई जाती है 
भूख के जवाब में हथियार पेश किये जाते हैं
परमाणु, रासायनिक और जैविक 

पूंजी पैदा करती है दुनियां के कोने-कोने में रोज नए  
भारत-पकिस्तान 
त्तर-दक्षिण कोरिया 
चीन-जापान 
इसराइल-फिलिस्तीन 

फिर हंसती है दोनों हाँथ जंघों पर ढोंक कर 
सोवियत संघ के अंजाम पर 
अफगानिस्तान पर 
ईराक पर 
मिश्र पर 

अपनी हंसी खुद दबाकर
बगलें झांकती है 
पूंजी
वेनुजुवेला और क्यूबा के सवाल पर 

दम फूल रहा है प्रतिपल  
हांफ रही है पूंजी 
और खेतों में अनाज की जगह उग रहीं हैं बन्दुकें 


पूंजी आत्मघाती हो रही है दिन-ब-दिन 

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सुशील कुमार 
दिल्ली,
जून 5, 2013

रविवार, 2 जून 2013

कॉमरेड की मौत

लाल चौक, मास्को, के स्मारक में कामरेड लेनिन का शव



















आज लाल चौक पर 
चुपचाप सोया है 
अक्टूबर क्रांति का शेर  

तटस्थ है,
प्रतिवाद नही करता,
क्रांति की बातें भी नही 

इस तरह हो जाती है 
एक कॉमरेड की मौत 
जब वह 
चुप रहता है, 
तटस्थ रहता है, 
प्रतिवाद नहीं करता,
क्रांति की बातें भी नहीं 

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सुशील कुमार  
दिल्ली,
2 जून, 2013

शब्दार्थ 
लाल चौक        - मास्को (रूस) का रेड स्क्वायर, जहाँ लेनिन की समाधि है । 
कॉमरेड            - साथी (साम्यवाद की लडाई में हमकदम) ।   
अक्टूबर क्रांति   - 1917 में लेनिन के नेतृत्व में हुई रूसी क्रांति, जो सर्वहारा समाजवादी क्रांति थी,
                         जिसमें जनवादी क्रांति के शक्तिशाली तत्व थे।