गुरुवार, 17 मई 2012
सोमवार, 7 मई 2012
आईना
एक ऐसा राजदार है मेरे कमरे में
जिसे पता हैं
उम्र भर अपने सीनें में
उसने दफ़्न रखा है मेरी हकीकत को
वह तब-तब हँसता होगा मुझपर
जब-जब अपना चेहरा साफ़ करने के लिए
मैं उसका बदन चमकाता हूँ
भावहीन एकटक वर्षों से वह
आत्मसात कर लेना चाहता हो
खुद में उतार कर
एक भावहीन तराजू में
रोज तौला जाता हूँ
इस बात से बेखबर कि
है कुछ जगह
बस एक क्षणभंगुरता ही है
जो हमदोनों को
समानुभूति की धरातल पर
एक साथ खड़ा करती है
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सुशील कुमार
दिल्ली
मई 7, 2012
जिसे पता हैं
मेरी सारी खूबियाँ और खामियाँ
फिर भी भरोसेमंद इतना किउम्र भर अपने सीनें में
उसने दफ़्न रखा है मेरी हकीकत को
वह तब-तब हँसता होगा मुझपर
जब-जब अपना चेहरा साफ़ करने के लिए
मैं उसका बदन चमकाता हूँ
भावहीन एकटक वर्षों से वह
सिर्फ चुपचाप निहारता है मुझे
जैसे मेरे अस्तित्व कोआत्मसात कर लेना चाहता हो
खुद में उतार कर
एक भावहीन तराजू में
रोज तौला जाता हूँ
इस बात से बेखबर कि
किसी की आँखों में
मेरी गफलतों के लिए भीहै कुछ जगह
बस एक क्षणभंगुरता ही है
जो हमदोनों को
समानुभूति की धरातल पर
एक साथ खड़ा करती है
---------------------------------
सुशील कुमार
दिल्ली
मई 7, 2012
शनिवार, 5 मई 2012
बदन पर सिंकतीं रोटियाँ
गरम-गरम रोटियों के लिए
तुम्हारे भी पेट में
आग धधकती होगी
कितना अच्छा लगता है
जब माँ या पत्नी तुम्हारे लिए
सेकतीं है गरमा-गरम रोटियाँ
लेकिन
एक गली है इस शहर में
जहाँ रोटियाँ तवे की मुहताज नहीं हैं
बल्कि बदन पर सेंकीं जाती है
यहाँ बदन को तपाकर
इतनी गर्मी पैदा कर ली जाती है कि
उस पर रोटियाँ सेंकी जा सके
तुम जान भी नहीं पाते हो
कि तुम्हारी सहानुभूति के छींटे
कब छनछनाकर उड़ जाते हैं
इस लहकते शरीर से
यहाँ शरीर की रगड़न से पैदा हुई
चिंगारियों को अंगीठी में सहेज कर
क्रूर सर्द रातों को गुनगुना बनाया जाता है
इस गली तक चल कर आते हैं
शहर भर के घरों से रास्ते
और शायद यहीं पर खत्म हो जाते हैं
क्यूंकि इस गली से कोई रास्ता
किसी घर तक नहीं जाता
तुम बात करना अगर मुनासिब समझो
तो जरा बताओ कि क्या तुमनें कभी
बदन पर सिंकतीं हुई रोटियों को देखा है यहाँ
शायद नहीं देखा होगा
क्यूंकि यहाँ से निकलते ही
जब तुम अपनी पीठ
इस गली की तरफ करते हो
नजरें चुराने में माहिर तुम्हारी आँखें
तुम्हारे भी पेट में
आग धधकती होगी
कितना अच्छा लगता है
जब माँ या पत्नी तुम्हारे लिए
सेकतीं है गरमा-गरम रोटियाँ
लेकिन
एक गली है इस शहर में
जहाँ रोटियाँ तवे की मुहताज नहीं हैं
बल्कि बदन पर सेंकीं जाती है
यहाँ बदन को तपाकर
इतनी गर्मी पैदा कर ली जाती है कि
उस पर रोटियाँ सेंकी जा सके
तुम जान भी नहीं पाते हो
कि तुम्हारी सहानुभूति के छींटे
कब छनछनाकर उड़ जाते हैं
इस लहकते शरीर से
यहाँ शरीर की रगड़न से पैदा हुई
चिंगारियों को अंगीठी में सहेज कर
क्रूर सर्द रातों को गुनगुना बनाया जाता है
इस गली तक चल कर आते हैं
शहर भर के घरों से रास्ते
और शायद यहीं पर खत्म हो जाते हैं
क्यूंकि इस गली से कोई रास्ता
किसी घर तक नहीं जाता
तुम बात करना अगर मुनासिब समझो
तो जरा बताओ कि क्या तुमनें कभी
बदन पर सिंकतीं हुई रोटियों को देखा है यहाँ
शायद नहीं देखा होगा
क्यूंकि यहाँ से निकलते ही
जब तुम अपनी पीठ
इस गली की तरफ करते हो
नजरें चुराने में माहिर तुम्हारी आँखें
सिर्फ अपने घर के दरवाजे पर टिकी होती है |
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सुशील कुमार
मई 5, 2012
दिल्ली
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