शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012
बुधवार, 18 अप्रैल 2012
एक मौत ही साम्यवादी है
वह माटी की सौंधी गंध का मुरीद था
सुनता था कहीं कोई चटकन सुनायी तो नहीं देती
कलियों के फूल बनने की प्रक्रिया में
इन्द्रधनुष की खबर
गाँव भर में देता फिरता सबसे पहले
पैरों के तलवे को छूने वाली
एक-एक ओस की बूंद को वह पहचानता था
बसंत में वह ऐसे झूमता जैसे
गुलमोहर और पलास उसी के लिये रंग बिखेरने आये हों
अगर अपनी धुन में जीता
तो वह कवि होता
लेकिन फांकाकशी में
चाँद भी रोटी दिखता है
कब तक सौन्दर्यबोध में जीता
और दवाईयों के लिए
लोगों के सामने हाथ फैलाता
भूख की लड़ाई में
एक के बाद एक
सबने अलविदा कहा
पिता, बड़ा भाई, माँ और चाचा
और वह जान पाया कि
हर काली रात एक
सुर्ख सुबह पर जा कर ख़त्म होती है
जहाँ सब के हिस्से में एक बराबर आती है मौत
इस क्रूर व्यवस्था में
एक मौत ही साम्यवादी है
उसने जो पहली कविता लिखी
वह कविता नहीं, सुलगते कुछ सवाल थे
या कहें चंद सवालात की पूरी कविता
कि आखिर वह कौन है जो
समाजवादी तरीकों से मौत तय करता है
और जिंदगी बाँटते समय पूंजीवादी हो जाता है ?
वह कौन सा फार्मूला है कि
जिन मुश्किल दिनों में बामुश्किल
मेरे घर में कफ़न खरीद कर लाये जाते हैं
उसी दौर में पडोसी के घर
चर्बी घटाने की मशीनें आती है ?
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सुशील कुमार
18, अप्रैल 2012
दिल्ली
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इस कविता को नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "मुक्ति संघर्ष" (साप्ताहिक) ने 2 से 8 जून 2013 वाले अंक में प्रकाशित किया था |
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इस कविता को नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "मुक्ति संघर्ष" (साप्ताहिक) ने 2 से 8 जून 2013 वाले अंक में प्रकाशित किया था |
शनिवार, 14 अप्रैल 2012
मुखौटा
रोज की तरह
शाम को घर लौटा
उतार दिया एक-एक कर
कमीज, पतलून, चश्मा और जूते
बेटे को गोद में उठाया ही था कि
वह जोर-जोर से रोने लगा
ऐसा लगा किसी अजनबी नें
लपक लिया हो उसको
मैनें भाग कर आईने में
अपना चेहरा देखा
ओह, कई चेहरे चिपके हैं परत-दर-परत
एक-एक कर
उतारता गया चेहरों को
ये कन्सलटेंट गया
ये समाजसेवी
ये एक्टिविस्ट
ये प्रशिक्षक
ये मूल्यांकनकर्ता
ये कवि भी गया
अब अपनी जेब से
निकाल कर पापा का चेहरा
चिपकाया खाली-खाली से मुखड़े पर
बेटे को गोद में उठाया
और
घोडा-घोडा खेलता रहा बहुत देर तक
उसके साथ
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सुशील कुमार
दिल्ली, 14 , अप्रैल 2012
श्रोत : http ://sambhawnaonkashahar.blogspot.in
शाम को घर लौटा
उतार दिया एक-एक कर
कमीज, पतलून, चश्मा और जूते
बेटे को गोद में उठाया ही था कि
वह जोर-जोर से रोने लगा
ऐसा लगा किसी अजनबी नें
लपक लिया हो उसको
मैनें भाग कर आईने में
अपना चेहरा देखा
ओह, कई चेहरे चिपके हैं परत-दर-परत
एक-एक कर
उतारता गया चेहरों को
ये कन्सलटेंट गया
ये समाजसेवी
ये एक्टिविस्ट
ये प्रशिक्षक
ये मूल्यांकनकर्ता
ये कवि भी गया
अब अपनी जेब से
निकाल कर पापा का चेहरा
चिपकाया खाली-खाली से मुखड़े पर
बेटे को गोद में उठाया
और
घोडा-घोडा खेलता रहा बहुत देर तक
उसके साथ
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सुशील कुमार
दिल्ली, 14 , अप्रैल 2012
श्रोत : http ://sambhawnaonkashahar.blogspot.in
मंगलवार, 10 अप्रैल 2012
शहर में घर का सपना
माथे के पसीने का
एड़ी तक पहुँच जाने पर भीपचास गज का एक अदद फ्लैट
सपना ही बना रहा
शहर में गजों में नापी जाती है तुम्हारी औकात
गाँव का कट्ठा, बीघा और एकड़ के मुकाबले
पचास, सौ या दो सौ गज की हैसियत
बहुत बड़ी है शहर में
गाँव में सिर्फ कब्र नापी जाती है गज में
और वह दो गज जमीन भी
तुम्हारी वास्तविक हैसियत बताने के लिए
बड़ी पड़ जाती है
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सुशील कुमार
दिल्ली, अप्रेल 10, 2012
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