शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

लिखता हूँ कविता

बेचने के लिए नहीं लिखता था कविता 
इसलिए लिखता रहा
और तकिये के नीचे दबाता रहा

कुछ ग़ुम हो गयीं और कुछ ग़ुम कर दी गयीं 
कुछ कुम्हलाई सी सोयी रही चुपचाप
कुछ रुठीं रहीं मुझसे कई बरस
कुछ सरक कर फर्श पर आ गिरी 
कुछ नें रेंगना शुरू कर दिया
कुछ चीखने लगीं
कुछ उछालने लगीं हवा में नारे
कर के अपनी मुठ्ठी बंद दस्तख देने लगीं
प्रकाशकों के दरवाजों पर
कुछ मंच देखते ही चढ़ बैठी और तांडव कर डाला

बेचने के लिए नहीं लिखता था
इसलिए कोई मोल भी न लगाया इनका
अनमोल हैं ये
लेकिन अब कमजोर नहीं है
कि तकिये से मुंह दबा दूँ इनका   

चीखतीं हैं अब, उठ खड़ी होती हैं
कभी-कभी मेरे भी खिलाफ

ये मेरी नहीं रह गयीं हैं अब
उनकी हैं जिनकी आवाज रह गयी है
दबी हुई सी
उनकी है जिनकी आत्मा में
दबे हैं बगावत के शोले

लिखता हूँ कविता, बेचता  नहीं हूँ
इसलिए मौकापरस्त नहीं बल्कि
जुल्मों सितम की काली कोठरी में
बगावत का चीराग हैं कवितायें मेरी

------------------------------------------------------
सुशील कुमार
फरवरी 25, 2012
दिल्ली      

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

हम-तुम

हम वो हैं जिसका 
कभी तुम्हे गुमाँ न हुआ 
तुम वो हो जिसकी वजह से 
हम मगरूर कहे जाते हैं जमाने में
 
____________________________
(सुशील कुमार)
फरवरी 7, 2012  दिल्ली