शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

शहर में चांदनी

भागो कि सब भाग रहे हैं
शहर में
कंकड़ीले  जंगलों में
मुंह छिपाने के लिए

चाँद
ईद का हो या
पूर्णिमा का
टी.वी. में निकलता है अब
रात मगर क्या हुआ

मेरी परछाई के साथ
चांदनी चली आई
कमरे में
सौम्य, शीतल,
उजास से भरी हुई

लगा मेरा कमरा
एक तराजू है
और
मै तौल रहा हूँ
चांदनी को
एक पलड़े में रख कर
कभी खुद से
कभी अपने तम से

लगा रहा हूँ हिसाब
कितना लुट चुका हूँ
शहर में !

** सुशील कुमार **

संभावनाओं का शहर

शहर की रगों में
खून की तरह
सायरन बजाते हुए
सरपट दौड़ने लगी हैं 
कंट्रोल रूम की गाड़ियाँ
जिन पर लिखा है
आपके साथ, आपके लिए - सदैव

वासिंदे जानने लगे हैं कि
इंटेलिजेंस इनपुट
क्या चीज है

बिडला हाउस से
बाटला हाउस तक
हवाओं में
गोलियों की गूँज के बावजूद

एतिहासिक व पुरातात्विक महत्व की
इमारतों के दुबक कर
संगीनों का कम्बल
ओढ़ लेने के बावजूद

हज़रत की मज़ार पर
ये कव्वाल बेख़ौफ़ सुना रहे हैं
सूफियाना कलाम

और
कॉफी हाउस में जमीं है
इंटेलेक्चुअल्स और कवियों की मंडली
एक-एक चुस्की में
एक-एक पहर सुडकते हुए

फेसिअल करके चमकने लगा है
दिलवालों का शहर
कॉमनवेल्थ खेलों की मेज़बानी के लिए

संभावनाओं का शहर
दिख रहा है
चौकस भी, बेख़ौफ़ भी

याद आ रहे हैं "ज़ौक"
यह कहते हुए 
"कौन जाए ज़ौक 
पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर" ! 

** सुशील कुमार **

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

मेरा पता

इस शहर में
साल दर साल
डायरी की तरह
बदल जाते हैं पते

हर नया पता
जैसे पुराने पते को
अंगूठा दिखा रहा होता है

सैकडो चिट्ठीयां
भटक रही हैं पुराने पतों पर
मेरे नाम की

कल की कब्र पर
आज के बाजार वाले
फार्मूले से  डर लगता है 

कहीं डायरी से
कैलेंडर न हो जाऊं !

** सुशील कुमार **

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

साये फसाद नहीं करते

भीड़  का हिस्सा बन
तलवारों, त्रिशुलों को
उछालते हुए हवा में
वे कौन थे
जो अपने भी लगते थे
और पराये भी

अरे
ये तो वही था
अरे-अरे
इसे भी तो शायद देखा है 
मोहल्ले में कहीं

वे जो एकजुट थे
चुनिन्दा घरों को जलाने के लिए
और संकल्पित थे
खूनी होली खेल जाने के लिए

वे जिनके गलियों में निकलते ही
मीनारों, गुम्बदो और मेहराबों में
पसर जाती थी एक मनहूस ख़ामोशी
और गगनचुम्बी पातकों की
हो जाती थी बोलती बंद

वे कौन थे
जिनका खून उबलते-उबलते
रगों से निकल
फर्श पर बहने लगा

ये किसके हैं पैर काट कर
सड़क पर फेंके हुए
अरे ये तो पड़े हैं  
छत-विछत गलियों में
इंसानी देह कि शक्ल में

थम क्यों गए
घर जलाने, मांग उजाड़ने और
बच्चों को अनाथ करने के लिए
एकजुटता से उठने वाले कदम

अरे क्यों सोये हो
तुम सड़क पर बेसुध ?
क्यूँ नहीं उछाल रहे हो नारे अब ?
इंसानी शक्ल में बवाल करने वालों
मरहूम क्या हुए कि
साधू, पीर हो गए ?

तुम चुप हो क्योंकि
अब साये हो तुम
बेहतर है साये ही रहो
क्योंकि
साये फसाद नहीं करते
और
इंसानी शक्ल में
इंसान बने रहना
मुश्किल है तुम्हारे लिए !

** सुशील कुमार **

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

डिग्री

पसीने से लथपथ चेहरे पर
सफ़ेद लेकिन मैले हो चुके
रुमाल को फेरते हुए
निगाह उस दफ्तर पर
ऐसे टिक गई जैसे
मरुस्थल में जलाशय दिख गया हो

दम तोडती उम्मीद को
हौसले का कन्धा देकर
'वह'
निष्प्राण क़दमों को
आत्मविश्वास की संजीवनी पिलाता है

परन्तु
जब रेत-कणों की चमक
जल नजर आती है
निराशा लाती है

बाहर आकर
गुस्सा जेब पर भी आया
तेरी वजह से
मैं गैर-सरकारी नौकर
भी न बन पाया

पसीने से भींगी सफ़ेद कमीज पर
ढीली टाई
जेब से झांकती कलम
और पुरानी फाईल

सुबह से शाम तक
यथावत दिनचर्या के बाद
फिर उसी बस स्टॉप पर खड़े होकर
जेब में रखे चिल्लड़ को गिनते हुए
उदास हो गया
'वह'

हालाँकि
अभी भी मुस्करा रही थी
फाईल में उसकी
'पी. एच. डी.' की डिग्री !

** सुशील कुमार **



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इस कविता को सबसे पहले नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "मुक्ति संघर्ष" (साप्ताहिक) ने 27 दिसंबर 1998 से 2 जनवरी 1999 वाले अंक में प्रकाशित किया था |  

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

आग

जिसके बुझते-बुझते
सब कुछ
राख हो गया

पल दो पल में
सुलग गयी थी
वह आग !

**सुशील कुमार**

बाप-बेटा

ट्रौली पर बैठा कर
पार्क की जॉगिंग ट्रैक पर
धकियाते हुए बड़ा हुआ 
और
पापा के आधुनिक कहलाने की 
हसरत पूरी करता रहा

ऊष्मा गोद में भी होती है
जान पाया
बाप बनने के बाद !

**सुशील कुमार **

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

नया क्या है ?

दिन, रात  
और फिर दिन

इस सिलसिले में 
नया क्या है ?

नया वह भी नहीं
जिसके बारे में
न्यूज़ चैनल बोल रहे हैं सुबह सुबह

नया यह है
कि आज चाय मैंने बनाई है
तुम्हारे लिए
और शायद यह भी
कि तुम सोती रही आज
मेरे उठने के बाद भी ! 

**   सुशील कुमार  **